इन दिनों सोशल मीडिया पर संबंधों पर खूब बातें होती हैं। उसे बनाने, चलाने और बढ़ाने पर चर्चा, बहस मुबाहिसा आदि चलते ही रहते हैं। सुबह से लेकर देर रात तक बड़ी-बड़ी सारगर्भित उक्तियां लिखी, कही और कहीं से उठा के कहीं लगा ली जाती है। बहुत सारे लोग सुबह, दोपहर, शाम तीनों वक्त अपने मित्रों और इष्टजनों को शुभवचन, मंगलकानाएं आदि भेजते रहते हैं। किसी को याद करना, उनके हर दिन को स्मरणीय बनाने की कोशिश करना एक अच्छी बात है । पर अफसोस की बात यह होती है कि ऐसी बातें ज्यादातर इन्हीं खानों तक सीमित रह जाती हैं। महत्त्वपूर्ण यह भी कि इन्हें कहने और सुनने वाले अधिकांश लोगों का लगभग सारा समय उनके हाथों की परिधि में समाए ‘डिजिटल स्लेटों’ की गुत्थियों को सुलझाने – उलझाने में ही बीत जाती है। संबंधों की दुहाई देते ये लोग दूर के रिश्तेदारों की कौन कहे, अपने परिजनों, यहां तक कि माता – पिता के साथ भी सही तरीके से रिश्तों का निर्वहन नहीं कर पाते। संबंधों के निर्माण और निबाह की अधिकांश बातें इंस्टाग्राम, वाट्सएप और फेसबुक आदि से शुरू होकर वहीं खत्म भी हो जाती हैं।संबंध ही हमारे जीवन और सामाजिक जीवन का आधार है । उसका विकास और विस्तार समाज के निर्माण की बुनियाद है। महान राजनीतिक विचारक अरस्तू कहते हैं, ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी । समाज से बाहर रहने वाला या तो पशु है या देवता । ‘ मनुष्य अलग-थलग नहीं रह सकता । समाज में ही उसका विकास होता है। गौरतलब है कि समाज के निर्माण का आधार लोगों के बीच का परस्पर संबंध है। आपसी संबंध और समाज एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। हमारे जीवन का आधार संबंध है और इसी से हमारे कर्म भी निर्धारित होते हैं। यानी संबंधों का ताना-बाना ही मनुष्य को कुछ करने या कुछ बनने के लिए उत्प्रेरित करता है। हम अपनी जरूरतों की पूर्ति और घर- परिवार, गांव, देश और समाज के लिए अपनी उपादेयता सिद्ध करने के लिए कर्म से जुड़ते हैं ।कहा जा सकता है कि जीवन संबंध है और संबंध ही कर्म । संबंध का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। मनुष्य का संबंध सिर्फ मनुष्य से ही नहीं होता, बल्कि स्वयं से, विचारों, वातावरण, प्रकृति, जीव-जंतु आदि से जुड़ना भी संबंध ही है। इन सबके साथ अपने रिश्तों को समझ कर ही व्यक्ति जीवन को भली-भांति समझ सकता है। उसके व्यक्तित्व का विस्तार तथा जीवन की पूर्णता का रहस्य इसी में समाहित है । यह एक अजीब बात है कि हममें से दुनिया के ज्यादातर हिस्से से नाता जोड़ते और सामंजस्य स्थापित करते-करते स्वयं की क्षमताओं, मन की गति, सोच आदि से ही अनभिज्ञ होते जाते हैं। उनकी सारी उम्र इसी अनभिज्ञता में बीत जाती है। वास्तव में जीवन के सहज और संतोषप्रद प्रवाह के लिए आत्म साक्षात्कार सबसे पहली जरूरत है । स्वयं को जानना, मन की गति को समझना, उससे जुड़ना और उसी दिशा में कर्मरत होना मनुष्य और समाज के बेहतर संबंधों के लिए जरूरी है। जो व्यक्ति स्वयं को नहीं पहचानता, अपनी जरूरतों, खुशियों के लिए पहल नहीं करता या उसे महत्त्व नहीं देता, वह समाज से भी सकारात्मक जुड़ाव स्थापित नहीं कर पाता ।बिना संबंध के मनुष्य या किसी भी जीव मात्र का होना असंभव है। हमारे होने का मतलब ही संबंधित होना है। सूर्य, चांद, धरा, पर्वत, नदी, वृक्ष, जल, थल, नभ, जीव सहित प्रकृति का हर जर्रा एक दूजे के साथ स्थापित संबंधों पर ही टिके हैं। सच यह है कि सृष्टि का चक्र इसी के बदौलत चलायमान है। हमारे द्वारा संबंधों की इन गुत्थियों को समझ नहीं पाना संघर्ष और विवाद का कारण बनता | बहुत ‘सारे लोग संबंधों को जीते नहीं है, बल्कि आवश्यकतानुसार उसका उपयोग करते हैं। जन्म से मिले संबंधों के अलावा (अक्सर उसमें भी) अधिकांश में उसकी लाभप्रदता और महत्त्व की तलाश करते हैं। व्यक्ति की स्वार्थपरकता उसे ऐसा करने को विवश करती है। अपने वृद्ध माता-पिता और परिजनों को वृद्धाश्रम में रखना, संपत्ति के लिए परिवारजनों, मित्रों से विश्वासघात, छोटी-छोटी बातों को लेकर रिश्ते तोड़ना, अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जाना आदि स्वार्थपरकता की पराकाष्ठा है।गौरतलब है कि स्वार्थपरता और संबंध एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। दोनों का साथ चलना असंभव है। अगर हम मानव जीवन की गहन पड़ताल करें तो पाएंगे कि वह अलग-अलग समय में अलगाव की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरता है । वह ज्यादातर उन्हीं संबंधों को तरजीह देता है, जिनसे उसका हित जुड़ा होता है और हितों की समाप्ति के साथ ही उनसे छुटकारा पा लेता है या पाने की कोशिश करता है। यह स्थिति संबंध के मर्म पर आघात है । वास्तव में संबंधों को समझना जीवन को समझने के समान है । यह मनुष्यता का द्योतक है। जिसने भी इसकी गूढ़ता और महत्त्व को समझा है, वही सफल इंसान बन पाया है। विडंबना यह है कि आज के समाज में सफलता की जो परिभाषा तय की गई है, उसका अंधानुकरण किया जा रहा है, उसे प्राप्त करने के क्रम में संबंधों को दरकिनार कर दिया जाता है। सवाल है कि अगर हम सफलता की ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, लेकिन उस सफलता पर उल्लसित होने वाला हमारा कोई करीबी या संबंधी हमारे आसपास नहीं होता, तो उसकी क्या कीमत होगी ।
