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बच्चे अंक बटोरने की मशीन नहीं हैं : विजय गर्ग

अधिकतर बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे आ गए हैं। परिणाम देख-सुन कर कहीं बधाइयों का तांता लगा, तो कहीं सन्नाटा पसर गया। कोई यह सोचने को तैयार नहीं कि किसी भी तरह की परीक्षा जिंदगी की अंतिम परीक्षा नहीं होती और न ही किसी एक परीक्षा के नतीजे पर सब कुछ निर्भर करता है। जीवन हमेशा अवसर देता है और कई बार देता है। अंततः ज्ञान और प्रतिभा ही मायने रखती है। इन्हीं पर जीवन की स्थायी सफलता और विफलता निर्भर करती है। समाज में प्रायः ऐसे दृष्टांत देखने को मिलते हैं कि बोर्ड परीक्षाओं में कम अंक लाने या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली प्रारंभिक विफलता के बाद भी धैर्य और निरंतरता के साथ किए गए परिश्रम अंततः फलदायी सिद्ध होते हैं। मगर ऐसे तमाम दृष्टांतों के बावजूद बोर्ड एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव एक ओर गुम होता बचपन दिखाई देता है, तो दूसरी ओर येन केन प्रकारेण उत्तीर्ण होने और अधिक से अधिक अंक बटोरने का उतावलापन भी दिखाई पड़ता है।तथा तनाव प्रश्न है कि क्या कागज के एक टुकड़े भर से किसी के ज्ञान या व्यक्तित्व का समग्र आकलन-मूल्यांकन किया जा सकता है? क्या किसी एक परीक्षा की सफलता असफलता पर ही भविष्य निर्भर करता है? जीवन की वास्तविक परीक्षाओं में ये परीक्षाएं कितनी सहायक हैं? इन्हें जाने-विचारे बिना अंकों के पीछे बदहवास होकर दौड़ने की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ रही है। अधिक प्राप्तांक को ही सफलता की एकमात्र कसौटी बनाने मानने से सामाजिकता, संवेदनशीलता और रचनात्मकता जैसे गुणों या मूल्यों की कहीं कोई चर्चा ही नहीं होती। यदि किसी विद्यार्थी के प्राप्तांक कम हैं, पर वह वह नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक कसौटियों पर खरा उतरता हो, तो क्या यह सब उसकी योग्यता का मापदंड नहीं होना चाहिए? क्या उसके संवाद कौशल, नेतृत्व क्षमता, सेवा-भाव, प्रकृति-परिवेश के प्रति सजगता आदि का आकलन नहीं किया जाना चाहिए। पिछले सौ वर्षों की मानवीय उपलब्धियों पर यदि नजर डालें, तो मानवता को दिशा देने वाले, बड़े कारनामे करने वाले लोग विद्यालयी परीक्षाओं में सर्वोच्च अंक लाने वाले लोग नहीं थे, बल्कि उनमें से कई तो तत्कालीन शिक्षण- तंत्र की दृष्टि में दर में कमजोर या कमजोर या फिसड्डी थे। जबकि समाज को लेकर उनका ज्ञान विशद और दृष्टिकोण व्यापक अवश्य था । अंकों की अंधी दौड़ का हिस्सा बनने से उचित क्या यह नहीं होता कि हम इस पर गंभीर चिंतन और व्यापक विमर्श करते कि क्यों हमारे शिक्षण- संस्थान वैश्विक मानकों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते? क्यों हमारे शिक्षण संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों मौलिक शोध और वैज्ञानिक- व्यावहारिक दृष्टिकोण का अभाव परिलक्षित होता है? क्यों हमारे शिक्षण संस्थान अभिनव प्रयोगों, नवोन्मेषी पद्धतियों, विश्लेषणपरक प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं देते ? क्यों हमारे शिक्षण संस्थानों से निकले अधिकांश विद्यार्थी आत्मनिर्भर और स्वावलंबी नहीं बन पाते ? क्यों उनमें कार्यानुकूल दक्षता और कुशलता की कमी देखने को मिलती है? क्यों वे साहस और आत्मविश्वास के साथ जीवन की चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते ?अंकों की प्रतिस्पर्धा का आत्मघाती दबाव दुखद है। इस दबाव में बच्चे सहयोगी बनने की अपेक्षा परस्पर प्रतिद्वंद्वी बन रहे हैं। ऐसी अंधी प्रतिस्पर्धा कुछ के अहं को सेंक देकर उन्हें एकाकी और स्वार्थी बनाती है, तो कुछ को अंतहीन कुंठा के गर्त में धकेलती है। यह तथ्य है कि प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या में व्यक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त सहयोग, सामंजस्य और सौंदर्य को विस्मृत कर बैठता है। प्रतिस्पर्धा करते-करते वह अपने घर-परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति भी प्रतिस्पर्धी भाव रखने लगता है। कई बार तो वह अपनों के प्रति भी कटु और कृतघ्न हो उठता है। मगर विडंबना है कि हम उसे बचपन से ही दूसरों को पछाड़ने की सीख दे रहे हैं। जबकि, हमें साथ, सहयोग और सामंजस्य की सीख देनी चाहिए। ‘जीवन एक संघर्ष है उससे कहीं अधिक आवश्यक है, यह जानना-समझना कि जीवन ‘सहयोग और संतुलन’ की सतत साधना है। अंकों की गलाकाट प्रतियोगिता वाले इस दौर में सफलता के सब्जबाग दिखाते | और सपने बेचते कोचिंग संस्थान एक अलग बेईमानी करते हैं। वे अभिभावकों से सफलता का सौदा करते हैं। सफल अभ्यर्थियों के चमकते-दमकते सितारा चेहरों और बढ़ा-चढ़ा कर र किए गए दावों के पीछे वे तमाम विफल अभ्यर्थियों की अंतहीन सूची और उनका दर्द नहीं दिखाते। सजे कालीन के पीछे के स्याह कटु सत्य को कौन देखे-दिखाए? रातों- रात करोड़पति बनने या छा जाने की मानसिकता हमारी सोचने-समझने की सहज शक्ति को भी कुंद कर देती है। भ्रामक प्रचार-प्रसार या आक्रामक विज्ञापनों के जरिए भोले-भाले मासूमों और उनके लिए अपने पलकों की कोरों में सपने सजाए तमाम अभिभावकों को बहलाया-फुसलाया जाता है। कई बार तो अभिभावक अपने बच्चों की रुचि एवं क्षमता का विचार किए बिना अपने सपनों का बोझ जाने अनजाने उनके कोमल कंधों पर डालने की भूल कर बैठते हैं। बच्चे उनके सपनों का भार ढोते ढोते अपना सहज- स्वाभाविक बचपन और जीवन तक भूल जाते हैं।बच्चे कुछ और भी कर सकते थे। कुछ बेहतर बन सकते थे, लेकिन भेड़चाल के कारण उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं की अंतहीन दौड़ और भीड़ में धकेल दिया जाता है। अगर वे सफल हुए तो ठीक, पर विफल हुए, तो जीवन भर वे उस विफलता की ग्लानि से बाहर नहीं निकल पाते। फिर उनके होठों से सहज हास और जीवन से आंतरिक आनंद, उल्लास गायब हो जाता है। समाज और संस्थाओं को सोचना होगा कि ये बच्चे या विद्यार्थी उत्पाद न होकर जीते-जागते मनुष्य हैं। इसलिए अपनी संततियों को अंकों की अंधी प्रतिस्पर्धा एवं अंतहीन दौड़ में झोंकने के बजाय उनके समग्र, संतुलित और बहुआयामी व्यक्तित्व के विकास पर ध्यान देना होगा। बच्चे नंबर बटोरने की मशीन नहीं हैं। हर बच्चा एक किताब नहीं, एक एक पूरी दुनिया है, ,जिसमें कई सपने और संभावनाएं हैं। हर बच्चे में कोई न कोई प्रतिभा या मौलिक विशेषता होती है। बस हचानने या सही दिशा देने की जरूरत है। कई बातें समान हुए भी हर बच्चा अलग है, उसकी सोच, रुचि, प्रवृत्ति, पृष्ठभूमि और प्रतिभा भिन्न-भिन्न है। बच्चे को उसी क्षेत्र में निखारना और मांजना चाहिए, जिसमें उसकी रुचि और योग्यता है। इससे अपनी रुचि वाले विषय में वह विशेषज्ञता अर्जित करता चला जाता और अंततः अपनी उपादेयता सिद्ध करता है। आज की दुनिया में हर क्षेत्र में थोड़े दक्ष और कुशल लोगों की नहीं, अपितु किसी एक क्षेत्र में निपुण लोगों की आवश्यकता है। बच्चों को सिर्फ अंकों से नहीं तौलना चाहिए। शिक्षा का मतलब उनमें समझ और संवेदना जगाना भी है। बच्चों की आपस में तुलना नहीं, बल्कि उन्हें बेहतर करने की प्रेरणा दी जानी चाहिए। उन्हें दिशा देने का प्रयास करना चाहिए। नंबरों का नहीं, मुस्कान का मूल्य समझना चाहिए। बच्चे हमारे भविष्य हैं, और हमेशा याद रहे कि हमें मशीनें नहीं, संवेदनशील और समझदार इंसान चाहिए।विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार प्रख्यात शिक्षाविद् स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट

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